श्रीकृष्ण ने ‘स्थितप्रज्ञ’ व्यक्ति के क्या लक्षण बताए हैं? Sthitpragnya ke lakshan

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प्रश्नोत्तरी क्रमांक ४, उत्तर १८ मार्च तक भेजें

१. "नासतो विद्यते भावो, नाभावो विद्यते सतः" इस श्लोक का क्या अर्थ है?

२. श्रीकृष्ण ने ‘स्थिरप्रज्ञ’ व्यक्ति के क्या लक्षण बताए हैं? उनका आचरण कैसा होना चाहिए?

३. भगवद्गीता के इस अध्याय का आज के जीवन में कैसे उपयोग किया जा सकता है?

Ans. 1. उर्मिला खंडेलवाल दीदी ने लिखा है....

 *Pahle prashn ka Uttar*

भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में अर्जुन को यह सिखा रहे हैं कि शरीर नाशवान है, लेकिन आत्मा शाश्वत है। इसलिए नाशवान चीजों का शोक नहीं करना चाहिए और अपने कर्तव्य (धर्म) का पालन करना चाहिए।

*Dusre prashn ka Uttar*

स्थिरप्रज्ञ व्यक्ति अपने मन, इन्द्रियों और भावनाओं को पूर्ण नियंत्रण में रखता है, राग-द्वेष से मुक्त रहता है और आत्मा में स्थित होकर जीवन जीता है। वह सांसारिक सुख-दुःख से प्रभावित नहीं होता और परम शांति (मोक्ष) को प्राप्त करता है।

*Teesre prashn ka Uttar* 

भगवद गीता का आज के जीवन में महत्व और उपयोग

भगवद गीता केवल एक धार्मिक ग्रंथ नहीं है, बल्कि यह जीवन जीने की कला सिखाती है। यह कर्म, भक्ति, ज्ञान और योग का सम्यक संतुलन प्रस्तुत करती है, जो आधुनिक जीवन की चुनौतियों का सामना करने में मदद करता है।

आज के जीवन में गीता का उपयोग

1. मानसिक शांति और आत्मसंयम

गीता सिखाती है कि मन पर नियंत्रण सबसे महत्वपूर्ण है।

(गीता 6.6) – "जो व्यक्ति अपने मन को नियंत्रित कर लेता है, वह अपना सबसे अच्छा मित्र बन जाता है।"

तनाव, चिंता और डिप्रेशन जैसी समस्याओं को दूर करने के लिए ध्यान और आत्मचिंतन का अभ्यास किया जा सकता है।

2. कार्य और कर्तव्य के प्रति समर्पण (कर्मयोग)

"कर्म करो, फल की चिंता मत करो" (गीता 2.47) – यह सिद्धांत हर क्षेत्र में लागू होता है।

विद्यार्थी पढ़ाई करें, कर्मचारी मेहनत करें, लेकिन परिणाम की चिंता न करें।

यह सिद्धांत बिजनेस, जॉब, राजनीति, खेल और जीवन के हर क्षेत्र में सफलता पाने के लिए मदद करता है।

3. निर्णय लेने की शक्ति (धर्म और नैतिकता)

गीता हमें सिखाती है कि सही और गलत में भेद करना महत्वपूर्ण है।

(गीता 3.35) – "अपने धर्म (कर्तव्य) का पालन करना दूसरों के धर्म का पालन करने से बेहतर है।"

जीवन के कठिन निर्णय लेते समय गीता का ज्ञान सही दिशा चुनने में मदद करता है।

4. सफलता का मंत्र (संतुलन और धैर्य)

(गीता 2.14) – "सुख-दुःख, हानि-लाभ, जय-पराजय समान हैं।"

यह हमें सिखाता है कि सफलता या असफलता से परेशान हुए बिना लगातार आगे बढ़ना चाहिए।

5. संबंधों और जीवनशैली में संतुलन

(गीता 6.17) – "जो व्यक्ति न अधिक खाता है, न अधिक सोता है, न ही अत्यधिक कार्य करता है, वह योगी होता है।"

यह सिखाता है कि जीवन में संतुलन बनाए रखना जरूरी है – न ज्यादा भौतिकता, न ज्यादा त्याग।

प्रश्न 3.  गीता को जीवन में कैसे अपनाएँ?

1. रोज़ गीता के कुछ श्लोक पढ़ें और उनके अर्थ को समझें।

2. ध्यान (मेडिटेशन) और स्वअनुशासन को अपनाएँ।

3. कर्मयोग – अपने कार्य को पूरी ईमानदारी से करें, बिना फल की चिंता किए।

4. सकारात्मक सोच और आत्मसंयम को विकसित करें।

5. निर्णय लेते समय गीता के सिद्धांतों को लागू करें।

निष्कर्ष

भगवद गीता सिर्फ एक धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि एक जीवन मार्गदर्शन है। यह करियर, रिश्ते, मानसिक शांति, निर्णय-निर्धारण, और आध्यात्मिकता में सहायक है। यदि इसे सही तरीके से अपनाया जाए, तो यह व्यक्ति को हर परिस्थिति में शांत, सफल और आत्मनिर्भर बना सकती है।


Ans.2. हेमांगी दीदी....

१. "नासतो विद्यते भावो, नाभावो विद्यते सतः" इस श्लोक का क्या अर्थ है?


गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को बता रहे हैं कि जो चीजें अस्तित्व में नहीं हैं, उनका कोई अस्तित्व नहीं होता है, लेकिन जो चीजें अस्तित्व में हैं, उनका अस्तित्व हमेशा रहता है।

 श्रीकृष्ण अर्जुन को सांख्य योग के बारे में बता रहे है 

गीता के अनुसार, यह श्लोक हमें यह समझने में मदद करता है कि अस्तित्व और अनस्तित्व के बीच क्या अंतर है, और यह कि हमें अपने जीवन में अविनाशी चीजों पर ध्यान देना चाहिए।


प्रश्न क्रमांक  २. का उत्तर:  श्रीकृष्ण ने ‘स्थिरप्रज्ञ’ व्यक्ति के क्या लक्षण बताए हैं? उनका आचरण कैसा होना चाहिए?

स्थिरप्रज्ञ  पुरुष के निम्नलिखित लक्षण होते हैं:

1. मन की शांति: स्थिरप्रज्ञ पुरुष का मन शांत और स्थिर रहता है।

2. इन्द्रियों का नियंत्रण: वह अपनी इन्द्रियों को नियंत्रित रखता है।

3. सुख-दुख में समानता: वह सुख और दुख में समानता को बनाए रखता है।

4. मोह का अभाव: वह मोह से मुक्त रहता है।

5. आत्म-विश्वास: वह आत्म-विश्वास से भरपूर रहता है।

6. धैर्य और स्थिरता: वह धैर्य और स्थिरता का अभ्यास करता है।

7. कर्मों में निष्कामता: वह अपने कर्मों में निष्कामता का अभ्यास करता है।

स्थिरप्रज्ञ पुरुष का आचरण

श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया है कि स्थिरप्रज्ञ पुरुष का आचरण निम्नलिखित होता है:

1. सदाचार: वह सदाचार का पालन करता है।

2. सत्य: वह सत्य को बनाए रखता है।

3. अहिंसा: वह अहिंसा का अभ्यास करता है।

4. दया: वह दया का अभ्यास करता है।

5. करुणा: वह करुणा का अभ्यास करता है।

6. सेवा: वह सेवा का अभ्यास करता है।

7. त्याग: वह त्याग का अभ्यास करता है।

इन लक्षणों और आचरण को अपनाकर, हम स्थिरप्रज्ञ पुरुष की तरह बन सकते हैं और अपने जीवन में सुख, शांति और समृद्धि प्राप्त कर सकते ह

प्रश्न ३. के उत्तर:    भगवद्गीता के इस अध्याय का आज के जीवन में कैसे उपयोग किया जा सकता है?

भागवत गीता के दूसरे अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को सांख्य योग के बारे में बता रहे हैं। इस अध्याय में कई महत्वपूर्ण बातें कही गई हैं जो आज के जीवन में  उपयोगी हो सकती हैं:

आत्म-साक्षरता

दूसरे अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को आत्म-साक्षरता के महत्व के बारे में बता रहे हैं। 

आज के जीवन में, हमें अपने बारे में जानने और अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए आत्म-साक्षरता का अभ्यास करना चाहिए।


धैर्य और स्थिरता

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को धैर्य और स्थिरता के महत्व के बारे में बता रहे हैं। 

आज के जीवन में, हमें अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए धैर्य और स्थिरता का अभ्यास करना चाहिए।


कर्म और कर्मफल

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को कर्म और कर्मफल के बारे में बता रहे हैं। 

आज के जीवन में, हमें अपने कर्मों के अनुसार फल प्राप्त होने के बारे में सोचना चाहिए और अपने कर्मों को सही दिशा में करना चाहिए।


आत्म-निर्भरता

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को आत्म-निर्भरता के महत्व के बारे में बता रहे हैं। 

आज के जीवन में, हमें अपने जीवन में आत्म-निर्भरता का अभ्यास करना चाहिए और अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए आत्म-निर्भरता का उपयोग करना चाहिए।


इन बातों को ध्यान में रखकर, हम अपने जीवन में सुधार कर सकते हैं और अपने लक्ष्यों को प्राप्त कर सकते हैं।

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